Sri Suktam- Lyrics in Sanskrit श्री सूक्त: आंतरिक शक्ति का जागरण और बाहरी समृद्धि का आह्वान

श्री सूक्तम – ( Sri Suktam ) ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम्

श्री सूक्तम (Sri Suktam ) एक शक्तिशाली वैदिक मंत्र है जो माता लक्ष्मी की महिमा का गान करता है। यह मंत्र ऋग्वेद के तीसरे मंडल में स्थित है और माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए इसका पाठ किया जाता है। श्री सूक्तम ( Sri Suktam Path ) का नियमित पाठ करने से व्यक्ति के जीवन में धन-धान्य की वृद्धि होती है और सभी प्रकार के कष्ट दूर होते हैं।

“ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम्” यह श्री सूक्तम (Shree Suktam ) का सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण मंत्र है। इस मंत्र में माता लक्ष्मी को सोने के रंग की, हिरणी के समान सुंदर और सोने-चांदी के आभूषणों से सुसज्जित बताया गया है।

श्री सूक्तम के लाभ: ( Shree Suktam )

  • धन-धान्य की वृद्धि: श्री सूक्तम ( Sri Suktam Path ) का पाठ करने से व्यक्ति के जीवन में धन-धान्य की वृद्धि होती है और आर्थिक स्थिति सुधरती है।
  • सुख-समृद्धि: माता लक्ष्मी की कृपा से व्यक्ति के जीवन में सुख-समृद्धि आती है और सभी प्रकार के कष्ट दूर होते हैं।
  • मानसिक शांति: श्री सूक्तम का पाठ करने से आंतरिक सक्ति के जागरण का अचूक उपाय है तथा शांति और स्थिरता आती है।
  • सफलता: इस मंत्र का नियमित पाठ करने से व्यक्ति के जीवन में सफलता प्राप्त होती है और सभी कार्य सिद्ध होते हैं।

श्री सूक्तम का पाठ ( Shri Suktam Path ) करने की विधि:

  • शुद्धता: श्री सूक्तम का ( Shri Suktam Path ) पाठ करने से पहले स्नान करके शुद्ध हो जाएं।
  • माता लक्ष्मी की पूजा: माता लक्ष्मी की मूर्ति या चित्र के सामने दीपक जलाएं और पूजा करें।
  • मंत्र का उच्चारण: श्री सूक्तम का मंत्र मन से या मुख से उच्चारण करें।
  • भावना: मंत्र का उच्चारण करते समय माता लक्ष्मी के प्रति भक्ति भाव रखें।

Shree Lakshmi Suktam Path in Sanskrit

Lakshmi Suktam – श्री सूक्तम (Shree Suktam ) का नियमित पाठ करने से व्यक्ति के जीवन में कई सकारात्मक बदलाव आते हैं। यह न केवल धन-धान्य की वृद्धि करता है बल्कि व्यक्ति के स्वास्थ्य, वैवाहिक जीवन और सभी क्षेत्रों में सफलता भी दिलाता है।


हरिः ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्र​जाम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥1॥

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम्॥2॥

अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम्।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम्॥3॥

कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्।
पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्॥4॥

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्।
तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे॥5॥

आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः॥6॥

उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे॥7॥

क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात्॥8॥

गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्॥9॥

मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः॥10॥

कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्॥11॥

आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले॥12॥

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥13॥

आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥14॥

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरुषानहम्॥15॥

यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्।
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत्॥16॥

पद्मानने पद्म ऊरू पद्माक्षी पद्मसम्भवे।
त्वं मां भजस्व पद्माक्षी येन सौख्यं लभाम्यहम्॥17॥

अश्वदायि गोदायि धनदायि महाधने।
धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे॥18॥

पुत्रपौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवे रथम्।
प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु माम्॥19॥

धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः।
धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणं धनमश्नुते॥20॥

वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः॥21॥

न क्रोधो न च मात्सर्य न लोभो नाशुभा मतिः।
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां श्रीसूक्तं जपेत्सदा॥22॥

वर्षन्तु ते विभावरि दिवो अभ्रस्य विद्युतः।
रोहन्तु सर्वबीजान्यव ब्रह्म द्विषो जहि॥23॥

पद्मप्रिये पद्मिनि पद्महस्ते पद्मालये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विष्णु मनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व॥24॥

या सा पद्मासनस्था विपुलकटितटी पद्मपत्रायताक्षी।
गम्भीरा वर्तनाभिः स्तनभर नमिता शुभ्र वस्त्रोत्तरीया॥25॥

लक्ष्मीर्दिव्यैर्गजेन्द्रैर्मणिगणखचितैस्स्नापिता हेमकुम्भैः।
नित्यं सा पद्महस्ता मम वसतु गृहे सर्वमाङ्गल्ययुक्ता॥26॥

लक्ष्मीं क्षीरसमुद्र राजतनयां श्रीरङ्गधामेश्वरीम्।
दासीभूतसमस्त देव वनितां लोकैक दीपांकुराम्॥27॥

श्रीमन्मन्दकटाक्षलब्ध विभव ब्रह्मेन्द्रगङ्गाधराम्।
त्वां त्रैलोक्य कुटुम्बिनीं सरसिजां वन्दे मुकुन्दप्रियाम्॥28॥

सिद्धलक्ष्मीर्मोक्षलक्ष्मीर्जयलक्ष्मीस्सरस्वती।
श्रीलक्ष्मीर्वरलक्ष्मीश्च प्रसन्ना मम सर्वदा॥29॥

वरांकुशौ पाशमभीतिमुद्रां करैर्वहन्तीं कमलासनस्थाम्।
बालार्क कोटि प्रतिभां त्रिणेत्रां भजेहमाद्यां जगदीश्वरीं त्वाम्॥30॥

सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥31॥

सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुक गन्धमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम्॥32॥

विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधवप्रियाम्।
विष्णोः प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम्॥33॥

महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नीं च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्॥34॥

श्रीवर्चस्यमायुष्यमारोग्यमाविधात् पवमानं महियते।
धनं धान्यं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः॥35॥

ऋणरोगादिदारिद्र्यपापक्षुदपमृत्यवः।
भयशोकमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा॥36॥

य एवं वेद ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्नीं च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥37॥


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